Indian Language Bible Word Collections
Job 29:3
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Job 29 Verses
1
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अय्यूब ने और भी अपनी गूढ़ बात उठाई और कहा, |
2
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भला होता, कि मेरी दशा बीते हुए महीनों की सी होती, जिन दिनों में ईश्वर मेरी रक्षा करता था, |
3
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जब उसके दीपक का प्रकाश मेरे सिर पर रहता था, और उस से उजियाला पाकर मैं अन्धेरे में चलता था। |
4
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वे तो मेरी जवानी के दिन थे, जब ईश्वर की मित्रता मेरे डेरे पर प्रगट होती थी। |
5
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उस समय तक तो सर्वशक्तिमान मेरे संग रहता था, और मेरे लड़के-बाले मेरे चारों ओर रहते थे। |
6
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तब मैं अपने पगों को मलाई से धोता था और मेरे पास की चट्टानों से तेल की धाराएं बहा करती थीं। |
7
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जब जब मैं नगर के फाटक की ओर चलकर खुले स्थान में अपने बैठने का स्थान तैयार करता था, |
8
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तब तब जवान मुझे देखकर छिप जाते, और पुरनिये उठ कर खड़े हो जाते थे। |
9
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हाकिम लोग भी बोलने से रुक जाते, और हाथ से मुंह मूंदे रहते थे। |
10
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प्रधान लोग चुप रहते थे और उनकी जीभ तालू से सट जाती थी। |
11
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क्योंकि जब कोई मेरा समाचार सुनता, तब वह मुझे धन्य कहता था, और जब कोई मुझे देखता, तब मेरे विषय साक्षी देता था; |
12
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क्योंकि मैं दोहाई देने वाले दीन जन को, और असहाय अनाथ को भी छुड़ाता था। |
13
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जो नाश होने पर था मुझे आशीर्वाद देता था, और मेरे कारण विधवा आनन्द के मारे गाती थी। |
14
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मैं धर्म को पहिने रहा, और वह मुझे ढांके रहा; मेरा न्याय का काम मेरे लिये बागे और सुन्दर पगड़ी का काम देता था। |
15
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मैं अन्धों के लिये आंखें, और लंगड़ों के लिये पांव ठहरता था। |
16
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दरिद्र लोगों का मैं पिता ठहरता था, और जो मेरी पहिचान का न था उसके मुक़द्दमे का हाल मैं पूछताछ कर के जान लेता था। |
17
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मैं कुटिल मनुष्यों की डाढ़ें तोड़ डालता, और उनका शिकार उनके मुंह से छीनकर बचा लेता था। |
18
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तब मैं सोचता था, कि मेरे दिन बालू के किनकों के समान अनगिनत होंगे, और अपने ही बसेरे में मेरा प्राण छूटेगा। |
19
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मेरी जड़ जल की ओर फैली, और मेरी डाली पर ओस रात भर पड़ी, |
20
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मेरी महिमा ज्यों की त्यों बनी रहेगी, और मेरा धनुष मेरे हाथ में सदा नया होता जाएगा। |
21
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लोग मेरी ही ओर कान लगाकर ठहरे रहते थे और मेरी सम्मति सुनकर चुप रहते थे। |
22
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जब मैं बोल चुकता था, तब वे और कुछ न बोलते थे, मेरी बातें उन पर मेंह की नाईं बरसा करती थीं। |
23
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जैसे लोग बरसात की वैसे ही मेरी भी बाट देखते थे; और जैसे बरसात के अन्त की वर्षा के लिये वैसे ही वे मुंह पसारे रहते थे। |
24
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जब उन को कुछ आशा न रहती थी तब मैं हंस कर उन को प्रसन्न करता था; और कोई मेरे मुंह को बिगाड़ न सकता था। |
25
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मैं उनका मार्ग चुन लेता, और उन में मुख्य ठहर कर बैठा करता था, और जैसा सेना में राजा वा विलाप करने वालों के बीच शान्तिदाता, वैसा ही मैं रहता था। |